Friday, January 7, 2011

यादें मेरे बचपन कि : उलटे पैरों वाली डायनें और भिखमंगे बच्चे !

एक बात तो है कि उसके पास किस्से बहुत कमाल के हुआ करते थे ! अत्तरा रिक्शेवाला ! बला का नशेडी अपना टूटा फूटा सहारनपुरी रिक्शा चलाता ! निपट अकेला, उम्र कोई चालीस या बयालीस ! खैनी ज़र्दा तो होते नहीं थे उन दिनों सो भांग के पौधे मसल मसल कागज़ कि सिगरेटों में भरता या चिलम में ! सबको पिलाता सबको नशेडी बना रखा था ! बाप था नहीं पर माँ मेरी बड़ी कड़क थी सो मैं बचा रहा उसके इस उपकार से ! सालों से मेरे घर में लाइट नहीं थी, माँ के सो जाने के बाद रात को घर से कुछ दूरी पर लगे बिजली के खम्बे कि रौशनी में मैं रोजाना पढ़ा करता, स्कूल का काम करता, पाठ याद करता , ये सब करना मुझे बड़ा अच्छा लगता ! ऐसा सालों साल होता आ रहा था और अब मैं नौवीं क्लास में हो गया था ! खैर उस शाम जो किस्सा उसने वहीँ पर सुनाया हम चार पांच छोकरों को सच्ची कहूं तो हमें लगने लगा कि किसी कुबेर के खजाने कि चाबी मिल गयी और अब मेरी और सागर कि गरीबी तो ये गयी और वो गयी ! किस्सा कुछ यूं था बकौल अत्तरा :




"कल रात को मैं आदर्श टाकी (सिनेमाघर) से आखिरी शो कि दो जनाना सवारियां लेकर निकला , रात के साढ़े बारह बज चुके थे ! जनाना सवारियां ! अहा बल्ले बल्ले ! जवान ते सोह्नियाँ , मुझे कहती कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पिला कर घर छोड़ आ ! मैं वी रिक्शा खूब दौड़ाया और हम ठंडी खुई पे पानी पीने रुके ! भई सोने के गहनों से लदी फदी , सेर सेर के तो हार पहने हुए थे, आधा आधा सेर कि छे छे चूड़ियाँ, भई बहुत गहने थे ! जैसे ही वो रिक्शे पर चड़ने लगीं मैं देखा उनके पैर तो पीछे को मुड़े हुए थे तो मुझे झट से पता चल गया वो तो चुड़ेलें थीं , जवान डायन ! मैं तो पसीना पसीना हो गया ! वो हस कर बोली 'अब तुझे पता चल गया ना कोई बात नहीं तू हमको घर छोड़ आ हम तुझे कुछ नहीं कहेंगी ' ! लो जी थोड़ी देर पहले जो रिक्शा हवा से बातें कर रहा था बैलगाड़ी जैसा भारी हो गया ! कोम्पनी बाग़ के एक अँधेरे कोने में बड़े सारे दरख़्त के नीचे रोक कर कहा 'हमारा घर आ गया '! मुझे लगा कि अब इन्होने मुझे कच्चा खा जाना है पर उन्होंने मुझे सोने कि भरी हुई बोरी दी "!



अत्तरे का इतना कहना था कि हम सारे उछल पड़े , "सोने कि भरी बोरी , कहाँ है, कहाँ है"? हम उसके छोटे से कमरे को लपके और कुछ रिक्शे को तलाशने लगे ! कुछ भी ना हाथ आया ! अत्तरा इस बीच मजे से चिलम खींच रहा था ! हमने फिर पूछा 'सोना कहाँ है " तो गला खंखार कर बोला कि "सुबह जब मैंने बोरी खोली तो उस में सूखा गोबर भरा हुआ था "!



मैंने और सागर ने अत्तरे कि इस बात का यकीन नहीं किया "साला ज़रूर कुछ छुपा रहा है" और दिन रात उसका पीछा करते रहे ! पर जब कुछ भी सुराग हाथ ना लगा तो सोचा कि आदर्श टाकी से रात को रिक्शे पे सवारी लिया करेंगे , शायद वो दो डायनें हमें मिल जाएँ और हमारी गरीबी पे रहम खाएं !



हम दोनों तकरीबन एक हफ्ता बिना नागा आदर्श टाकी रात का आखिरी शो उठाने जाते , जो भी सवारी मिलती ना कर देते , हमारी नज़रें तो दो जवान जनाना सवारियों को ढूँढतीं थीं,



सोने से लदी फदी , उलटे पैरों वाली दो जनाना सवारियां !



हाँ आखिरी रात उस हफ्ते कि , जब हम दोनों अपने अपने रिक्शे दौड़ाते कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पी रहे थे तो दो छोटे छोटे भाई बहन मिल ये , फटेहाल बिन नहाए जिस्मों वाली बदबू !



उम्र बमुश्किल तीन तीन पांच पांच साल ! पूछा कि क्या कर रहे हो , माँ बाप कहाँ हैं तुम्हारे ? जवाब मिला, " रास्ता भूल गये, हाथी गेट में हमारा घर है "! थोड़ा और पूछने से पता चला कि भीख मांगते मांगते दोनों भटक गये थे !



नयी मुसीबत ! हाथी गेट तो शहर के वो दूसरे कोने पर था , रात बरात का टाइम , अजनबी बच्चों के साथ दो छोकरे रिक्शों पर ? पोलिस ने पूछताछ कि तो तबियत रातों रात हरी कर देंगे !



सो उन दोनों नन्हे भाई बहन को उस रात अपने घर ले आये , थोड़ा बहुत जो बचा पड़ा था खिलाया और साथ में सुला लिया ! अगले दिन सुबह स्कूल से कि छुट्टी और हाथी गेट उन दोनों को लेकर गये ! काफी पता करने के बाद कुम्हारों के मोहल्ले में उनके माँ बाप का पता लगा ! बच्चों को उनके हवाले किया ! ना साली चाय पूछी ना पानी! बस खाली असीसों कि पोटलियाँ थमा दी और हम वापिस हो लिए !



उलटे पैरों वाली, सोने से लदी फदी जवान डायनें तो मिली नहीं, कहाँ मिला करती हैं !



हाँ वो दो भिखमंगे बच्चे ज़रूर मिले थे ........... साला अत्तरा , रब्ब करे कीड़े पड़ें उसको !

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