Friday, January 7, 2011

यादें बचपन की : सुदेश की माहवारी का मल्लाह

उन दिनों तो सरकारी स्कूलों में भी वो झूला हुआ करता था जिस के दोनों छोर पर बैठ कर ऊपर नीचे, ऊपर नीचे होते हुए झूला लिया जाता ! इस साइड वाला जब ऊपर तो उस साइड वाला बच्चा नीचे ! सी-सा कहते थे उसको ! आज भी शायद यही नाम होगा उसका ! हमारे खोतिहाते स्कूल में भी ऐसा ही एक झूला था ! बात सन इकसठ कि है ! मुझे इसलिए भी याद कि अभी चीन से जंग नहीं थी छिड़ी ! आधी छुट्टी के दौरान इस झूले के इर्द गिर्द बच्चों का हुजूम होता और हर कोई अपनी बारी का इंतज़ार करता ! हम लडको में एक बुरी या कह लो शैतान आदत थी कि जब झूले कि दूसरी साइड पर कोई लड़की बैठी होती तो ऊपर नीचे होते होते जोर का झटका देना कि वो बेलेंस खराब होने कि वजाह से धड़ाम नीचे गिर जाती और झूले पर लड़कों का कब्ज़ा बना रहता !




पर हम सब सुदेश से खूब डरते ! सुदेश पांचवी में दो दफे फेल हो चुकी थी ! स्कूल के एकदम बाहर उसके बाप सुभाष कि डबलरोटी कि दूकान थी ! सुदेश भी तो डबलरोटी ही थी, भरी भरी छातियाँ, डील डौल भी हे रब्ब जी ! कोई मसखरा लड़का अगर उस से पंगा ले बैठता तो सुदेश फ़ौरन उसे मिटटी में मिटटी कर देती ! भई तेज़ बहुत थी वो !



खैर उस दिन आधी छुट्टी को सुदेश झूला झूल रही थी झूले के साथ साथ उसकी छातियाँ भी! जैसे ही उसकी दूसरी साइड वाला बच्चा उतरा मैं झट से जम्प मार कर सुदेश के साथ झूला झूलने लगा ! हम कुछ देर तो ऊपर नीचे ऊपर नीचे झूलते रहे पर जैसे ही मैंने सुदेश को कनखियों से अपनी सहेली को घूरते देखा जो इमली चूस रही थी मैंने मारा इक जोर का झटका और सुदेश सचमुच डबलरोटी कि तरह धड़ाम से ज़मीन पे गिर गयी ! लड़कों कि तालियाँ बजती बजती अचानक रुक गयीं और मुझे लगा कि हेड मास्साब आ गये हों...इतना सन्नाटा गया था छा! सारे के सारे बच्चे सुदेश कि सलवार को फटी आँखों से देख रहे थे जो खून से गीली होती जा रही थी !



मुझे काटो तो खून नहीं.....हेड मास्साब का डंडा आँखों के आगे भी और जिस्म पर भी ! जो कि दरअसल हुआ भी ! मार खाते खाते मैंने देखा सुदेश कि माँ उसको झटपट ले गयी ! सुदेश के चलने से ये ज़रूर अंदाजा हो गया कि उसको कोई चोट वोट नहीं थी लगी ! पर हेड मास्साब ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी ! डबलरोटी वाले कि बेटी थी ना सुदेश ! वो भी एकदम स्कूल के बाहर!



आधी छुट्टी ख़त्म हो गुई सारे क्लासों में अपने अपने टाटों पर खामोश ! फिर पूरी छुट्टी कि घंटी भी बज गयी ! हम सब अपने अपने घरों को दौड़े, मैं भी ऐसे जैसे कुछ हुआ ही ना हो !



अगले दिन स्कूल पहुँच कर ये तो जानना ही था कि सुदेश को कितनी चोट लगी थी ! मैंने अपनी क्लास कि सहपाठिन जो सुदेश कि सहेली थी से पूछा ! उसने कहा, "चोट वोट कोई नहीं आई, उसनू कपड़े आ गये सी " !



(काफी साल लगे ये जानने में कि "लड़की को कपड़े आना क्या होता है ")!



इस तरह सुदेश कि पहली माहवारी का मैं मल्लाह बना , हेड मास्साब से मार खाता हुआ !

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