Friday, January 7, 2011

yaadein mere bachpan ki

वो आज भी जिंदा है मेरा दोस्त सागर! उसका बाप ता-उम्र पाकिस्तानी जेलों में सड़ता रहा और मेरा, मुझे पैदा कर फ़ौज में ऐसा गया कि फिर कभी आया ही नहीं ! गाँव के यार अमूमन नंग-धड़ंग ही घुमते उन दिनों! सागर कब समलैंगिक हो गया मुझे पता नहीं था चला ! और फिर चौदह पन्द्राह साल कि उम्र तक आते आते वो मुझे भी रतन टेलर कि दूकान के पिछवाड़े लेजाने कि तिकड़में लड़ाता...पर चूंकि वो पांचवी में ही दो बार फेल हो, स्कूल छोड़ चुका था सो मैं स्कूल निकल जाता और इस तरह मैं उससे, रतन टेलर से अपना पिछवाड़ा बचने में कामयाब रहा ! खैर जिस दिन का ये किस्सा है उस दिन मैं और सागर पास पड़ती नहर से पकड़ी मछलियाँ शहर बेच कर घर आ रहे थे ! सोचा कि रास्ते में पड़ते कोम्पनी बाग़ (अब राम बाग़) में से गुजरेंगे और वहां टेनिस खेलती किरण, कविता पिशोरिया कि नंगी टांगें,जांघे देखेंगे (ज़मीन पे लेट जाते और टेनिस कोर्ट के नीले परदे उठा कर नज़ारा देखते ) ! किरण पिशोरिया आज कि किरण बेदी हैं !








पर उस दिन हम दोनों कि लाटरी लगनी थी सो लग गयी ! जैसे ही वि.जे हस्पताल कि सड़क क्रॉस कि, कि एक स्कूटर सवार धड़ाम से गिरा, स्लिप होकर ! दाड़ी वाला मुछढ़ ! हम दोनों भागे , उठाओ तो उठे ना ...नीम-बेहोश , दांतों से खून रिस रिस कर दाढ़ी में, जहाँ एक टूटा दांत अटका हुआ था ! हमने उसको , उसके स्कूटर को खींच-खूंच कर सड़क किनारे लगाया ! अचानक मैंने देखा कि सागर मेरी ओर देख रहा है ! मैंने उसकी नज़र "पढ़" ली ! सो ज़ख़्मी मुछढ़ को हस्पताल पहुँचाने से पहले हम उसका बटुआ , चांदी कि मुंदरी (अंगूठी) , रिस्टवाच, बूट "साफ़" चुके थे , वहीँ कोम्पनी बाग़ कि झाड़ियों में छुपा चुके थे !







पास ही हस्पताल का गेट और इमरजेंसी , वहां जमा कराया तो पूछताछ भी हुई ! एक नर्स बीबी हम पर इतनी फ़िदा और लोटपोट, "कितने चंग्गे लड़के ने"! अब तक उस ज़ख़्मी को होश आ चुका था और हम दोनों के होश फाख्ता हो रहे थे कि घड़ी, पर्स का अब पता चला कि अब ! खैर उसने घर का पता बताया , फोन किया गया ! उन दिनों काले काले फोन हुआ करते थे घुमाने वाले !



सागर ने फिर मेरी तरफ देखा ! हमने मिनमिनाते हुए लोटपोट नर्स बीबी को कहा कि हमारा गाँव बहुत दूर है हम को जाना चाहिए , "हाँ पुत्तर , हाँ पुत्तर तुम जाओ , अब ये ठीक हैं, और इनके रिश्तेदार भी आ रहे "!







अब हम दोनों सीधे उन झाड़ियों में लपके ! बटुए में से 86 रूपये निकले ( बहुत ज्यादा रकम सन '67 के हिसाब से ) ! हम दोनों ने रिक्शा लिया , आटा, कडवा तेल सरसों का, चीनी, चा-पत्ती , बेसन, डालडा, चने किंया दालें यानी दो महीनों का राशन खरीदा ! कुछ दिनों के बाद वो चांदी कि मुंदरी भी सतारह रूपये में बेच दी , हम दोनों ने उसदिन दरबार साहेब के पास छकक कर पूरी-छोले और लस्सी खाए, घर भी लेकर आये !







उस शाम दो बातें हुईं, दोनों को देर से आने के लिए मार नहीं पड़ी , इतना राशन देख कर हम दोनों कि माएं हमारी बलाएं लेती नहीं थी थक रही



दूसरी बात कि हम किरण , कविता पिशोरिया कि नंगी टांगें , जांघें नहीं देख सके !

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