Dialogues on Earth
Our earth has always fascinated me by virtue of its perseverence. The way it speaks to all of us with its very subtle nuances. My problem is that humans are the only species who are surely and gradually getting out of sync with this dialogue eg. we don't miss a particular bird, the earthworm, our waters have become brakish even receding. Unfortunate paradox is the dialogue is becoming man vs earth. All other sentient beings, as Dalai Lama says, are being pushed to the margins.
Friday, January 21, 2011
Friday, January 7, 2011
more bhopals waiting.....
भोपाल और भी हैं, होने को
भोले शंकर तुमने सचमुच में प्रबुधों को भी अपनी छतरी तले ले लिया ...आपका नमन...हम सबके सामने इस देश में हुए कितने सारे नटवर लाल कांड, हर्षद मेहता, चारा घोटाला , बोफोर्स ,ब्लू स्टार, पनडुब्बी स्कैम हो चुके...उन पर आये फैसलों से पता ही था....अबू सलेम अभी भी जेल में खैनी गुटका पर मोबाइल हो रहा पर हम ? लकीर पीट रहे .... मेरे जैसी कीड़ी तक को पता था की कैसी "वर्डिक्ट" आएगी ,आपको/प्रेस को न पता हो बात हजम नहीं होती ! पर प्रेस की छाती पीटने की कवायद , भोले दिखने वाला मुखौटा तो नहीं ही तजना ...नहीं छोड़ना...आगे चलिए सर ... कुछ सोचिये ...उस शाम/रात जो हुआ....अगले दिन मैं ,तेजी ग्रोवर ,PGI के डॉक्टर राम जलोहा ,विकास नेहरु भोपाल की अरेरा कालोनी में थे ...कितनी लाशों /अधमरे लोगों/बच्चों को सरेआम सड़कों ,गलियों , ओपन स्पेसिज में पड़े देखा ...शाम होते हमें गिरफ्तार कर भोपाल से बाहर कर दिया गया ...प्रशासन नहीं चाहता था की मरे लोगों की वास्तविक गिनती देश/प्रेस तक पहुंचे , बाहर के लोग वहां दाखिल हों ...कालांतर केस जैसे चला, मुआवज़ा कतरा कतरा टपका ...death - certificate जारी करने में जो हेराफेरीआ हुई वो दीगर क्लेश.....पर तस्वीर साफ़ होती गयी की हश्र क्या होना है ! कुछ ही दिन पहले जब दिल्ली के गोल्फ लिंक में रघु भाई के स्टूडियो में था....तभी कह रहा था वो विख्यात फोटोग्राफर "अर्नेस्ट सरकार जिस तरह से (जिन विषयों पर) अम्रीका के साथ engage हो चुकी , कोई उम्मीद नहीं कि अपेक्षित वर्डिक्ट आएगी" (रघु भाई ने जिस पैशन और गीली आँखों से कैमरे में मौत को कैद किया दुनिया और भविष्य के लिए उन दिनों........मीरा व् अनिल सदगोपाल किन किन झुग्गिओं में रहे हैं ...वो भोले शंकर नहीं जानते ),रसूल भाई तो रो रो कर आंखें ख़राब कर चुके...अब तक उनका कलेजा क्यों नहीं फटा गनीमत जी...उम्मीद अँधा भी कर डालती है बन्दे को ...खैर जैसा पीछे कहा, "आगे चलिए सर ...कुछ कर मारिए..कुछ कर/मर लें ... कुछ सोच लें अभी वक़्त है" क्योंकि काफी "भोपाल" अभी होने शेष हैं.
(anil, mira,raghu bhai, ram,vikas...and all do not grieve, there is so much more to do ...and we know it).
भोले शंकर तुमने सचमुच में प्रबुधों को भी अपनी छतरी तले ले लिया ...आपका नमन...हम सबके सामने इस देश में हुए कितने सारे नटवर लाल कांड, हर्षद मेहता, चारा घोटाला , बोफोर्स ,ब्लू स्टार, पनडुब्बी स्कैम हो चुके...उन पर आये फैसलों से पता ही था....अबू सलेम अभी भी जेल में खैनी गुटका पर मोबाइल हो रहा पर हम ? लकीर पीट रहे .... मेरे जैसी कीड़ी तक को पता था की कैसी "वर्डिक्ट" आएगी ,आपको/प्रेस को न पता हो बात हजम नहीं होती ! पर प्रेस की छाती पीटने की कवायद , भोले दिखने वाला मुखौटा तो नहीं ही तजना ...नहीं छोड़ना...आगे चलिए सर ... कुछ सोचिये ...उस शाम/रात जो हुआ....अगले दिन मैं ,तेजी ग्रोवर ,PGI के डॉक्टर राम जलोहा ,विकास नेहरु भोपाल की अरेरा कालोनी में थे ...कितनी लाशों /अधमरे लोगों/बच्चों को सरेआम सड़कों ,गलियों , ओपन स्पेसिज में पड़े देखा ...शाम होते हमें गिरफ्तार कर भोपाल से बाहर कर दिया गया ...प्रशासन नहीं चाहता था की मरे लोगों की वास्तविक गिनती देश/प्रेस तक पहुंचे , बाहर के लोग वहां दाखिल हों ...कालांतर केस जैसे चला, मुआवज़ा कतरा कतरा टपका ...death - certificate जारी करने में जो हेराफेरीआ हुई वो दीगर क्लेश.....पर तस्वीर साफ़ होती गयी की हश्र क्या होना है ! कुछ ही दिन पहले जब दिल्ली के गोल्फ लिंक में रघु भाई के स्टूडियो में था....तभी कह रहा था वो विख्यात फोटोग्राफर "अर्नेस्ट सरकार जिस तरह से (जिन विषयों पर) अम्रीका के साथ engage हो चुकी , कोई उम्मीद नहीं कि अपेक्षित वर्डिक्ट आएगी" (रघु भाई ने जिस पैशन और गीली आँखों से कैमरे में मौत को कैद किया दुनिया और भविष्य के लिए उन दिनों........मीरा व् अनिल सदगोपाल किन किन झुग्गिओं में रहे हैं ...वो भोले शंकर नहीं जानते ),रसूल भाई तो रो रो कर आंखें ख़राब कर चुके...अब तक उनका कलेजा क्यों नहीं फटा गनीमत जी...उम्मीद अँधा भी कर डालती है बन्दे को ...खैर जैसा पीछे कहा, "आगे चलिए सर ...कुछ कर मारिए..कुछ कर/मर लें ... कुछ सोच लें अभी वक़्त है" क्योंकि काफी "भोपाल" अभी होने शेष हैं.
(anil, mira,raghu bhai, ram,vikas...and all do not grieve, there is so much more to do ...and we know it).
प्यार :
अकेली लड़की ट्राम से उतरती है , रेनकोट के कौलर को ऊंचा कर लेती है..हौले हौले गिरती ठंडी फुहार से बचती तेज़ी से सिनेमा हॉल की लौबी में टिकट-विंडो के सामने जा कर खड़ी हो जाती है , कोई नहीं उसके साथ, पर फिर भी किसी इंतज़ार में ...निचले होंठ को दांतों तले दबाती हुई खड़ी रहती है ..."मैडम कितनी टिकट" ? ख्यालों के बादल से किसी बूँद सी गिरती है. " ..अ..अ...अम....दो...दो टिकट प्लीज़ ".... खुद पे हैरान ,"दूसरा किस के लिए "?... टिकट खिड़की से काफी परे...कोई अकेला लड़का...गीले कपड़ों में पीठ इधर किये फिल्म के पोस्टर में खोया हुआ ....
फिल्म शुरू होने की घंटी ...लड़की अकेली जा कर अपनी सीट पर बैठ जाती है...थोड़ी देर में वही गीले कपड़ों वाला नौजवान लड़का साथ की सीट पे आ बैठता है ...फिल्म के शुरू से आखिर तक एक भी शब्द नहीं .... दोनों इकठे बाहर आते हैं , बरसात वैसी ही , दोनों ट्राम पर चढ़ जाते हैं ...लड़की का स्टेशन पहले आता है..बिना कोई लफ्ज़ बोले वो उत्तर जाती है...कुछ मिनटों के बाद लड़का भी उत्तर कर अपने कमरे में......काफी पल खिड़की में से दिखती हुई रेलवे लाइन को घूरता रहता है ... फिर जेब में हाथ डाल कर कुछ निकालता है...फिल्म की दो गीली टिकटें....
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LOVE :
this lonely girl gets down from the tram....pops up her raincoat, it is drizzling...hurries to the lobby of this cinema hall.Goes and stands near the ticket window, as if in wait of someone."HOW MANY TICKETS"...OH..hmmm...TWO PLEASE...and wonders...WHY TWO...much away from ticket window...this boy in wet clothes, with his back...lost in the film poster.the bell rings..it is showtime.she saunters alone inside the hall...takes her seat..soon the boy with wet clothes comes and sits besides her...not a word during the movie...they come out together and take the tram.Her station comes and she gets down without a word...few minutes later this boy also alights ...reaches his room..from his window stares for long at the railway tracks out there...puts his hands in his wet pocket and takes out something...two wet... film tickets.
फिल्म शुरू होने की घंटी ...लड़की अकेली जा कर अपनी सीट पर बैठ जाती है...थोड़ी देर में वही गीले कपड़ों वाला नौजवान लड़का साथ की सीट पे आ बैठता है ...फिल्म के शुरू से आखिर तक एक भी शब्द नहीं .... दोनों इकठे बाहर आते हैं , बरसात वैसी ही , दोनों ट्राम पर चढ़ जाते हैं ...लड़की का स्टेशन पहले आता है..बिना कोई लफ्ज़ बोले वो उत्तर जाती है...कुछ मिनटों के बाद लड़का भी उत्तर कर अपने कमरे में......काफी पल खिड़की में से दिखती हुई रेलवे लाइन को घूरता रहता है ... फिर जेब में हाथ डाल कर कुछ निकालता है...फिल्म की दो गीली टिकटें....
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LOVE :
this lonely girl gets down from the tram....pops up her raincoat, it is drizzling...hurries to the lobby of this cinema hall.Goes and stands near the ticket window, as if in wait of someone."HOW MANY TICKETS"...OH..hmmm...TWO PLEASE...and wonders...WHY TWO...much away from ticket window...this boy in wet clothes, with his back...lost in the film poster.the bell rings..it is showtime.she saunters alone inside the hall...takes her seat..soon the boy with wet clothes comes and sits besides her...not a word during the movie...they come out together and take the tram.Her station comes and she gets down without a word...few minutes later this boy also alights ...reaches his room..from his window stares for long at the railway tracks out there...puts his hands in his wet pocket and takes out something...two wet... film tickets.
chand par paani
आह ! हमारा चाँद , जहाँ हमारे "चंद्रयान" ने पानी ढूंढ निकला, उस से भी हजार साल पहले (गीता सूक्त 13, अध्याय 15 ) में चाँद पर पानी की बात हो चुकी ...शेक्सपियर महोदय अपने नाटक हैमलेट में भी बता गये ! सवाल यह है की "अब उस पानी पर पहला अधिकार किसका , कौन वहां कुआँ / घड़े /बोतलें /टयूबवेल ठोकेगा ? कौन सी सरकारें ?? या फिर निजीकरन
मुझे लगता है प्यासी धरती की प्यास दूर करने वाली अमरीकी कोम्पनिओं को सर्वाधिक जल्दी होगी !यह भीड़ अपनी "नीली तयारी" में है की चाँद का पानी हमारा ., हम तो प्यासे भारत की नदिओं और प्यास पर अधिकार कर चुके .एक तरीका है की जिस तरह धरती की दक्षिणी आइस कैप पर किसी का अधिकार नहीं (1961 ) , तो चाँद की दक्षिणी सतह , जहाँ पानी के संकेत हैं वहां भी किसी का अधिकार नहीं होगा ...पर क्या ऐसा हो पायेगा ...
चलो दिलदार चलो , चाँद के पार चलो .
मुझे लगता है प्यासी धरती की प्यास दूर करने वाली अमरीकी कोम्पनिओं को सर्वाधिक जल्दी होगी !यह भीड़ अपनी "नीली तयारी" में है की चाँद का पानी हमारा ., हम तो प्यासे भारत की नदिओं और प्यास पर अधिकार कर चुके .एक तरीका है की जिस तरह धरती की दक्षिणी आइस कैप पर किसी का अधिकार नहीं (1961 ) , तो चाँद की दक्षिणी सतह , जहाँ पानी के संकेत हैं वहां भी किसी का अधिकार नहीं होगा ...पर क्या ऐसा हो पायेगा ...
चलो दिलदार चलो , चाँद के पार चलो .
water on moon
Gita (verse 13,chapter 15) says "having become the sapid moon, i nourish all herbs", and the english playwright Shakespeare wrote in Hamlet alludeing to moon as "moist star" , in his Winter's Tale he alluded "the watery star"...well ... well... now where do we go from the moment when indian satellite "Chandrayan" gave first conclusive hints of water on moon, our chanda mama. Will India have/claim 'first rights", establishing the right equation between the water scarce earth and the watery moon?...not so easy. My guess is that the temptation to tap the moon water "aquq soma" is more likely to be irresistible. My another guess is that pepsi/coke etc who have already been given 'river rights' in india will be the first speediest prospectors of aqua soma. they have a history to learn /rehearse from, of prospecting...the eldorado/the wild west.
One mechanism exists...the way the southern edge of out earth's southern ice cap belongs to none (treaty antarctic1961), will lunar southern edge (with water) can also be saved from exploitation...free enterprise will not like this .
Better still, will "victorious " humans ensure that the earth's child satellite continues to belong to itself, BUT visited by humans ON HER TERMS?
How is the moon to set her own terms AMIDST ALL THIS ?
One mechanism exists...the way the southern edge of out earth's southern ice cap belongs to none (treaty antarctic1961), will lunar southern edge (with water) can also be saved from exploitation...free enterprise will not like this .
Better still, will "victorious " humans ensure that the earth's child satellite continues to belong to itself, BUT visited by humans ON HER TERMS?
How is the moon to set her own terms AMIDST ALL THIS ?
यादें मेरे बचपन कि : उलटे पैरों वाली डायनें और भिखमंगे बच्चे !
एक बात तो है कि उसके पास किस्से बहुत कमाल के हुआ करते थे ! अत्तरा रिक्शेवाला ! बला का नशेडी अपना टूटा फूटा सहारनपुरी रिक्शा चलाता ! निपट अकेला, उम्र कोई चालीस या बयालीस ! खैनी ज़र्दा तो होते नहीं थे उन दिनों सो भांग के पौधे मसल मसल कागज़ कि सिगरेटों में भरता या चिलम में ! सबको पिलाता सबको नशेडी बना रखा था ! बाप था नहीं पर माँ मेरी बड़ी कड़क थी सो मैं बचा रहा उसके इस उपकार से ! सालों से मेरे घर में लाइट नहीं थी, माँ के सो जाने के बाद रात को घर से कुछ दूरी पर लगे बिजली के खम्बे कि रौशनी में मैं रोजाना पढ़ा करता, स्कूल का काम करता, पाठ याद करता , ये सब करना मुझे बड़ा अच्छा लगता ! ऐसा सालों साल होता आ रहा था और अब मैं नौवीं क्लास में हो गया था ! खैर उस शाम जो किस्सा उसने वहीँ पर सुनाया हम चार पांच छोकरों को सच्ची कहूं तो हमें लगने लगा कि किसी कुबेर के खजाने कि चाबी मिल गयी और अब मेरी और सागर कि गरीबी तो ये गयी और वो गयी ! किस्सा कुछ यूं था बकौल अत्तरा :
"कल रात को मैं आदर्श टाकी (सिनेमाघर) से आखिरी शो कि दो जनाना सवारियां लेकर निकला , रात के साढ़े बारह बज चुके थे ! जनाना सवारियां ! अहा बल्ले बल्ले ! जवान ते सोह्नियाँ , मुझे कहती कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पिला कर घर छोड़ आ ! मैं वी रिक्शा खूब दौड़ाया और हम ठंडी खुई पे पानी पीने रुके ! भई सोने के गहनों से लदी फदी , सेर सेर के तो हार पहने हुए थे, आधा आधा सेर कि छे छे चूड़ियाँ, भई बहुत गहने थे ! जैसे ही वो रिक्शे पर चड़ने लगीं मैं देखा उनके पैर तो पीछे को मुड़े हुए थे तो मुझे झट से पता चल गया वो तो चुड़ेलें थीं , जवान डायन ! मैं तो पसीना पसीना हो गया ! वो हस कर बोली 'अब तुझे पता चल गया ना कोई बात नहीं तू हमको घर छोड़ आ हम तुझे कुछ नहीं कहेंगी ' ! लो जी थोड़ी देर पहले जो रिक्शा हवा से बातें कर रहा था बैलगाड़ी जैसा भारी हो गया ! कोम्पनी बाग़ के एक अँधेरे कोने में बड़े सारे दरख़्त के नीचे रोक कर कहा 'हमारा घर आ गया '! मुझे लगा कि अब इन्होने मुझे कच्चा खा जाना है पर उन्होंने मुझे सोने कि भरी हुई बोरी दी "!
अत्तरे का इतना कहना था कि हम सारे उछल पड़े , "सोने कि भरी बोरी , कहाँ है, कहाँ है"? हम उसके छोटे से कमरे को लपके और कुछ रिक्शे को तलाशने लगे ! कुछ भी ना हाथ आया ! अत्तरा इस बीच मजे से चिलम खींच रहा था ! हमने फिर पूछा 'सोना कहाँ है " तो गला खंखार कर बोला कि "सुबह जब मैंने बोरी खोली तो उस में सूखा गोबर भरा हुआ था "!
मैंने और सागर ने अत्तरे कि इस बात का यकीन नहीं किया "साला ज़रूर कुछ छुपा रहा है" और दिन रात उसका पीछा करते रहे ! पर जब कुछ भी सुराग हाथ ना लगा तो सोचा कि आदर्श टाकी से रात को रिक्शे पे सवारी लिया करेंगे , शायद वो दो डायनें हमें मिल जाएँ और हमारी गरीबी पे रहम खाएं !
हम दोनों तकरीबन एक हफ्ता बिना नागा आदर्श टाकी रात का आखिरी शो उठाने जाते , जो भी सवारी मिलती ना कर देते , हमारी नज़रें तो दो जवान जनाना सवारियों को ढूँढतीं थीं,
सोने से लदी फदी , उलटे पैरों वाली दो जनाना सवारियां !
हाँ आखिरी रात उस हफ्ते कि , जब हम दोनों अपने अपने रिक्शे दौड़ाते कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पी रहे थे तो दो छोटे छोटे भाई बहन मिल ये , फटेहाल बिन नहाए जिस्मों वाली बदबू !
उम्र बमुश्किल तीन तीन पांच पांच साल ! पूछा कि क्या कर रहे हो , माँ बाप कहाँ हैं तुम्हारे ? जवाब मिला, " रास्ता भूल गये, हाथी गेट में हमारा घर है "! थोड़ा और पूछने से पता चला कि भीख मांगते मांगते दोनों भटक गये थे !
नयी मुसीबत ! हाथी गेट तो शहर के वो दूसरे कोने पर था , रात बरात का टाइम , अजनबी बच्चों के साथ दो छोकरे रिक्शों पर ? पोलिस ने पूछताछ कि तो तबियत रातों रात हरी कर देंगे !
सो उन दोनों नन्हे भाई बहन को उस रात अपने घर ले आये , थोड़ा बहुत जो बचा पड़ा था खिलाया और साथ में सुला लिया ! अगले दिन सुबह स्कूल से कि छुट्टी और हाथी गेट उन दोनों को लेकर गये ! काफी पता करने के बाद कुम्हारों के मोहल्ले में उनके माँ बाप का पता लगा ! बच्चों को उनके हवाले किया ! ना साली चाय पूछी ना पानी! बस खाली असीसों कि पोटलियाँ थमा दी और हम वापिस हो लिए !
उलटे पैरों वाली, सोने से लदी फदी जवान डायनें तो मिली नहीं, कहाँ मिला करती हैं !
हाँ वो दो भिखमंगे बच्चे ज़रूर मिले थे ........... साला अत्तरा , रब्ब करे कीड़े पड़ें उसको !
"कल रात को मैं आदर्श टाकी (सिनेमाघर) से आखिरी शो कि दो जनाना सवारियां लेकर निकला , रात के साढ़े बारह बज चुके थे ! जनाना सवारियां ! अहा बल्ले बल्ले ! जवान ते सोह्नियाँ , मुझे कहती कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पिला कर घर छोड़ आ ! मैं वी रिक्शा खूब दौड़ाया और हम ठंडी खुई पे पानी पीने रुके ! भई सोने के गहनों से लदी फदी , सेर सेर के तो हार पहने हुए थे, आधा आधा सेर कि छे छे चूड़ियाँ, भई बहुत गहने थे ! जैसे ही वो रिक्शे पर चड़ने लगीं मैं देखा उनके पैर तो पीछे को मुड़े हुए थे तो मुझे झट से पता चल गया वो तो चुड़ेलें थीं , जवान डायन ! मैं तो पसीना पसीना हो गया ! वो हस कर बोली 'अब तुझे पता चल गया ना कोई बात नहीं तू हमको घर छोड़ आ हम तुझे कुछ नहीं कहेंगी ' ! लो जी थोड़ी देर पहले जो रिक्शा हवा से बातें कर रहा था बैलगाड़ी जैसा भारी हो गया ! कोम्पनी बाग़ के एक अँधेरे कोने में बड़े सारे दरख़्त के नीचे रोक कर कहा 'हमारा घर आ गया '! मुझे लगा कि अब इन्होने मुझे कच्चा खा जाना है पर उन्होंने मुझे सोने कि भरी हुई बोरी दी "!
अत्तरे का इतना कहना था कि हम सारे उछल पड़े , "सोने कि भरी बोरी , कहाँ है, कहाँ है"? हम उसके छोटे से कमरे को लपके और कुछ रिक्शे को तलाशने लगे ! कुछ भी ना हाथ आया ! अत्तरा इस बीच मजे से चिलम खींच रहा था ! हमने फिर पूछा 'सोना कहाँ है " तो गला खंखार कर बोला कि "सुबह जब मैंने बोरी खोली तो उस में सूखा गोबर भरा हुआ था "!
मैंने और सागर ने अत्तरे कि इस बात का यकीन नहीं किया "साला ज़रूर कुछ छुपा रहा है" और दिन रात उसका पीछा करते रहे ! पर जब कुछ भी सुराग हाथ ना लगा तो सोचा कि आदर्श टाकी से रात को रिक्शे पे सवारी लिया करेंगे , शायद वो दो डायनें हमें मिल जाएँ और हमारी गरीबी पे रहम खाएं !
हम दोनों तकरीबन एक हफ्ता बिना नागा आदर्श टाकी रात का आखिरी शो उठाने जाते , जो भी सवारी मिलती ना कर देते , हमारी नज़रें तो दो जवान जनाना सवारियों को ढूँढतीं थीं,
सोने से लदी फदी , उलटे पैरों वाली दो जनाना सवारियां !
हाँ आखिरी रात उस हफ्ते कि , जब हम दोनों अपने अपने रिक्शे दौड़ाते कोम्पनी बाग़ कि ठंडी खुई से पानी पी रहे थे तो दो छोटे छोटे भाई बहन मिल ये , फटेहाल बिन नहाए जिस्मों वाली बदबू !
उम्र बमुश्किल तीन तीन पांच पांच साल ! पूछा कि क्या कर रहे हो , माँ बाप कहाँ हैं तुम्हारे ? जवाब मिला, " रास्ता भूल गये, हाथी गेट में हमारा घर है "! थोड़ा और पूछने से पता चला कि भीख मांगते मांगते दोनों भटक गये थे !
नयी मुसीबत ! हाथी गेट तो शहर के वो दूसरे कोने पर था , रात बरात का टाइम , अजनबी बच्चों के साथ दो छोकरे रिक्शों पर ? पोलिस ने पूछताछ कि तो तबियत रातों रात हरी कर देंगे !
सो उन दोनों नन्हे भाई बहन को उस रात अपने घर ले आये , थोड़ा बहुत जो बचा पड़ा था खिलाया और साथ में सुला लिया ! अगले दिन सुबह स्कूल से कि छुट्टी और हाथी गेट उन दोनों को लेकर गये ! काफी पता करने के बाद कुम्हारों के मोहल्ले में उनके माँ बाप का पता लगा ! बच्चों को उनके हवाले किया ! ना साली चाय पूछी ना पानी! बस खाली असीसों कि पोटलियाँ थमा दी और हम वापिस हो लिए !
उलटे पैरों वाली, सोने से लदी फदी जवान डायनें तो मिली नहीं, कहाँ मिला करती हैं !
हाँ वो दो भिखमंगे बच्चे ज़रूर मिले थे ........... साला अत्तरा , रब्ब करे कीड़े पड़ें उसको !
यादें बचपन की : सुदेश की माहवारी का मल्लाह
उन दिनों तो सरकारी स्कूलों में भी वो झूला हुआ करता था जिस के दोनों छोर पर बैठ कर ऊपर नीचे, ऊपर नीचे होते हुए झूला लिया जाता ! इस साइड वाला जब ऊपर तो उस साइड वाला बच्चा नीचे ! सी-सा कहते थे उसको ! आज भी शायद यही नाम होगा उसका ! हमारे खोतिहाते स्कूल में भी ऐसा ही एक झूला था ! बात सन इकसठ कि है ! मुझे इसलिए भी याद कि अभी चीन से जंग नहीं थी छिड़ी ! आधी छुट्टी के दौरान इस झूले के इर्द गिर्द बच्चों का हुजूम होता और हर कोई अपनी बारी का इंतज़ार करता ! हम लडको में एक बुरी या कह लो शैतान आदत थी कि जब झूले कि दूसरी साइड पर कोई लड़की बैठी होती तो ऊपर नीचे होते होते जोर का झटका देना कि वो बेलेंस खराब होने कि वजाह से धड़ाम नीचे गिर जाती और झूले पर लड़कों का कब्ज़ा बना रहता !
पर हम सब सुदेश से खूब डरते ! सुदेश पांचवी में दो दफे फेल हो चुकी थी ! स्कूल के एकदम बाहर उसके बाप सुभाष कि डबलरोटी कि दूकान थी ! सुदेश भी तो डबलरोटी ही थी, भरी भरी छातियाँ, डील डौल भी हे रब्ब जी ! कोई मसखरा लड़का अगर उस से पंगा ले बैठता तो सुदेश फ़ौरन उसे मिटटी में मिटटी कर देती ! भई तेज़ बहुत थी वो !
खैर उस दिन आधी छुट्टी को सुदेश झूला झूल रही थी झूले के साथ साथ उसकी छातियाँ भी! जैसे ही उसकी दूसरी साइड वाला बच्चा उतरा मैं झट से जम्प मार कर सुदेश के साथ झूला झूलने लगा ! हम कुछ देर तो ऊपर नीचे ऊपर नीचे झूलते रहे पर जैसे ही मैंने सुदेश को कनखियों से अपनी सहेली को घूरते देखा जो इमली चूस रही थी मैंने मारा इक जोर का झटका और सुदेश सचमुच डबलरोटी कि तरह धड़ाम से ज़मीन पे गिर गयी ! लड़कों कि तालियाँ बजती बजती अचानक रुक गयीं और मुझे लगा कि हेड मास्साब आ गये हों...इतना सन्नाटा गया था छा! सारे के सारे बच्चे सुदेश कि सलवार को फटी आँखों से देख रहे थे जो खून से गीली होती जा रही थी !
मुझे काटो तो खून नहीं.....हेड मास्साब का डंडा आँखों के आगे भी और जिस्म पर भी ! जो कि दरअसल हुआ भी ! मार खाते खाते मैंने देखा सुदेश कि माँ उसको झटपट ले गयी ! सुदेश के चलने से ये ज़रूर अंदाजा हो गया कि उसको कोई चोट वोट नहीं थी लगी ! पर हेड मास्साब ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी ! डबलरोटी वाले कि बेटी थी ना सुदेश ! वो भी एकदम स्कूल के बाहर!
आधी छुट्टी ख़त्म हो गुई सारे क्लासों में अपने अपने टाटों पर खामोश ! फिर पूरी छुट्टी कि घंटी भी बज गयी ! हम सब अपने अपने घरों को दौड़े, मैं भी ऐसे जैसे कुछ हुआ ही ना हो !
अगले दिन स्कूल पहुँच कर ये तो जानना ही था कि सुदेश को कितनी चोट लगी थी ! मैंने अपनी क्लास कि सहपाठिन जो सुदेश कि सहेली थी से पूछा ! उसने कहा, "चोट वोट कोई नहीं आई, उसनू कपड़े आ गये सी " !
(काफी साल लगे ये जानने में कि "लड़की को कपड़े आना क्या होता है ")!
इस तरह सुदेश कि पहली माहवारी का मैं मल्लाह बना , हेड मास्साब से मार खाता हुआ !
पर हम सब सुदेश से खूब डरते ! सुदेश पांचवी में दो दफे फेल हो चुकी थी ! स्कूल के एकदम बाहर उसके बाप सुभाष कि डबलरोटी कि दूकान थी ! सुदेश भी तो डबलरोटी ही थी, भरी भरी छातियाँ, डील डौल भी हे रब्ब जी ! कोई मसखरा लड़का अगर उस से पंगा ले बैठता तो सुदेश फ़ौरन उसे मिटटी में मिटटी कर देती ! भई तेज़ बहुत थी वो !
खैर उस दिन आधी छुट्टी को सुदेश झूला झूल रही थी झूले के साथ साथ उसकी छातियाँ भी! जैसे ही उसकी दूसरी साइड वाला बच्चा उतरा मैं झट से जम्प मार कर सुदेश के साथ झूला झूलने लगा ! हम कुछ देर तो ऊपर नीचे ऊपर नीचे झूलते रहे पर जैसे ही मैंने सुदेश को कनखियों से अपनी सहेली को घूरते देखा जो इमली चूस रही थी मैंने मारा इक जोर का झटका और सुदेश सचमुच डबलरोटी कि तरह धड़ाम से ज़मीन पे गिर गयी ! लड़कों कि तालियाँ बजती बजती अचानक रुक गयीं और मुझे लगा कि हेड मास्साब आ गये हों...इतना सन्नाटा गया था छा! सारे के सारे बच्चे सुदेश कि सलवार को फटी आँखों से देख रहे थे जो खून से गीली होती जा रही थी !
मुझे काटो तो खून नहीं.....हेड मास्साब का डंडा आँखों के आगे भी और जिस्म पर भी ! जो कि दरअसल हुआ भी ! मार खाते खाते मैंने देखा सुदेश कि माँ उसको झटपट ले गयी ! सुदेश के चलने से ये ज़रूर अंदाजा हो गया कि उसको कोई चोट वोट नहीं थी लगी ! पर हेड मास्साब ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी ! डबलरोटी वाले कि बेटी थी ना सुदेश ! वो भी एकदम स्कूल के बाहर!
आधी छुट्टी ख़त्म हो गुई सारे क्लासों में अपने अपने टाटों पर खामोश ! फिर पूरी छुट्टी कि घंटी भी बज गयी ! हम सब अपने अपने घरों को दौड़े, मैं भी ऐसे जैसे कुछ हुआ ही ना हो !
अगले दिन स्कूल पहुँच कर ये तो जानना ही था कि सुदेश को कितनी चोट लगी थी ! मैंने अपनी क्लास कि सहपाठिन जो सुदेश कि सहेली थी से पूछा ! उसने कहा, "चोट वोट कोई नहीं आई, उसनू कपड़े आ गये सी " !
(काफी साल लगे ये जानने में कि "लड़की को कपड़े आना क्या होता है ")!
इस तरह सुदेश कि पहली माहवारी का मैं मल्लाह बना , हेड मास्साब से मार खाता हुआ !
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